- डॉ. ओमप्रकाश कादयान
काफी दिनों बाद मैं अपने गांव गया। गांव गया तो पुराने दिनों की याद ताजा करने के लिए खेत जाने की गहरी इच्छा हुई। गेहूं की लहलाती फसल देखने, ईख में घुसकर मनपसंद गन्ना तोड़कर चूसने के लिए, झाड़ियों से बेर तोड़कर खाने, खेतों में खुले चल रहे नहर के पानी के नाले से पानी पीने के लिए, खेतों में काम करते किसानों से मिलने, खेतों की शुद्ध हवा में सांस लेने, शीतल बयार को महसूस करने तथा चहचाते, उड़ते, किलोल करते रंग-बिरंगे पक्षियों को निहारने के लिए मैं खेतों की डगर चला। मुझे खेतों में काफी कुछ मिला, देखा, महसूस किया, किंतु जब मैं अपने खेत में गया तो यह देख मुझे अच्छा नहीं लगा कि पक्षियों की टोलियां गायब थी। मन को लुभाने वाली उनकी चहचहाहट सुनाई नहीं दे रही थी। पक्षी कहीं नहीं दिखाई दे रहे थे।
मुझे बचपन के वो दिन याद आए जब मैं छोटा था। बाजरे के खेतों में चिड़िया उड़ाने के लिए डामचा (गोपिया, मचान) बना होता था। जब बाजरे की सरटियां पकने को होती तो एक साथ सैकड़ों नहीं बल्कि हज़ारों चिड़ियों की टोली बाजरे की फसल पर टूट पड़ती। किसान अपने डामचा पर खड़ा होकर चिड़ियों को उड़ाता था। चिड़ियों की टोली फिर आ जाती फिर उड़ाई जाती, किंतु अब गौरैया की टोलियां कहां गायब हो गई? अब किसान को बाजरे के खेत में न डामचा बनाने की जरूरत पड़ती है तथा ना ही पक्षियों को उड़ाने की। फिर भी किसान खुश नहीं हैं। क्योंकि उन चिड़ियों से उसे लगाव भी तो बहुत रहा है। चिड़िया को खोकर वह भी तो उदास हो गया है।
मैं अपने खेत में बने पक्के कोठड़े में गया। वहां भी निराशा हुई। मुझे याद है इस कोठड़े के आगे एक बड़ा छप्पर होता था। उस छप्पर में कम से कम 10-15 चिड़ियों के घोंसले होते थे। उन से चूज़ों के चहचहाने की आवाजें आती रहती। चिड़ा व चिड़िया अपने-अपने बच्चों को पालने में व्यस्त रहते, चुग्गा देते। आते-जाते रहते। कुएं के पास पेड़ों के झुरमुटों पर त्योंरी, करेले, घीया, सेम की बेलें चढ़ी रहती। उनमें छोटे फूलों का रस चूसने वाली छोटी-छोटी चिड़िया, गुरसल, देसी मैना, काली चिड़ियां, मोड़ी (काफता) ने अपना बसेरा बना रखा था। थोड़ी ही दूर बड़ी-बड़ी शीशम की चोटियों पर चीलों के कुछ घोंसले थे तो भारी पेड़ों के खोखले हिस्सों में हर वर्ष कोई न कोई तोते का परिवार रहता था।
ईख के पत्तों में, ज्वार-बाजरे की फसलों में पौधों पर अनेक घोंसले होते थे। बबूल की टहनियों से सैंकड़ों कलात्मक घोंसले लटके रहते जो बया के थे। बारिश से पहले सैकड़ों बया अपने नए घोंसले बनाने में व्यस्त दिखती थी। मौसम के अनुसार टिटहरी व मोरनी के अंडे जमीन पर ही तिनकों, कंकरों से बने घोंसलों में दिखाई देते। एक मोरनी के पीछे चार-चार, पाँच-पाँच छोटे-छोटे बच्चे घूमते दिखाई देते तो हम खुशी से उछल पड़ते थे। कोयल बड़ी चालाक होती है। अपने अण्डे छुप कर कौए के घोंसले में रख देती है। नर-मादा कौआ समझते हैं कि यह हमारा ही अण्डा है।
वहीं उसे सेय कर बच्चों को चुग्गा देते हैं। यह हमने अनेक बार अपनी आंखों से देखा है कौए को कोयल के बच्चों को पालते हुए। हम कौए के अण्डे देखने से डरते थे क्योंकि वो सिर पर टोल्ले मारता था। अब हमें दो-तीन कौए तो दिखाई दिए, किंतु कोयल नजर नहीं आई, ना ही उसकी मधुर कूक। पहले बड़ी काली चिड़िया बहुत संख्या में थी। कीट-पतंगे, कीड़े-मकोड़े पकड़ने के लिए वो अक्सर खेत में बनाए डरावे पर या किसी डण्डे पर, सूखी टहनियों पर बैठती थी। गांव की बणी में, खलिहानों में, मंदिरों में, सरोवरों पर लगे पेड़ों पर असंख्य मोर थे। खेतों में भी बहुत थे। खेतों की मुंडेर पर या खाली जगह में जब मोर नृत्य करते थे तो हम देखकर झूम उठते थे। सर्दियां शुरू होने से पहले ही वो अपने पंख झाड़ देते थे।
हमें अब भी याद है कि हम मोरपंख इकठ्ठे करने के लिए सुबह 4:30 या 5:00 बजे उठकर कई किलोमीटर दूर खेतों में जाते थे। कुछ मोरों का खास ठिकाना होता था पेड़ पर बैठने का। हम बड़े-ऊंचे शीशम के पेड़ के नीचे से (जिस शीशम या अन्य पेड़ पर मोर बैठा होता) ढेर सारे मोर पंख चुग कर लाते थे। ज्वार व बाजरे के खेतों में भी मोर पंख मिल जाते थे। जोहडों, मंदिरों में भी खूब मिलते थे। मोर पंख इकठ्ठे कर उसकी पशुओं के लिए मालाएं बनाते थे। खासकर दिवाली के दिन पशुओं के गले में बांधते थे। एक तो सुंदर लगते थे तथा दूसरा, मान्यता थी कि पशु स्वस्थ रहेगा। हमें यह जानकर अति पीड़ा हुई कि मोर खेतों से लगभग गायब हो गए हैं। कुछ मोरों का शिकार हो गया, कुछ कीटनाशक से मर गए तथा कुछ पेड़ कम होने की वजह से कम हो गए। मोरनी को अण्डे देने के लिए अब सुरक्षित जगह नहीं मिल रही।
उल्लू व कोतरी दोनों पक्षी रात को शिकार करने के लिए निकलते हैं फिर भी हमें अक्सर वो दिन में दिखाई दे जाते थे। पेड़ों पर झुरमुटों में या खरखोड़ों में दुबके हुए। एक किसान ने बताया कि वो भी अब लुप्त प्राय से हो गए हैं। हमारे खेत के पास एक जोहड़ी (छोटा जोहड़) है। उसमें जब मैं गया तो मुझे कोई बत्तख तैरती दिखाई नहीं दी। पहले इसमें 50-60 या इससे भी अधिक बत्तखें पानी पर तैरती, मछलियों के लिए गोते लगाती या पंखों को सुखाती हुई दिखाई देती थी। कई बार तो एक बत्तख के पीछे-पीछे 5-6 बच्चे भी तैरते-घूमते दिखते थे। सर्दियों में तो प्रवासी पक्षी भी बहुत आ जाते थे। मेरी याद में अन्य भी कई प्रकार के पक्षी हम देखते थे। अब कई दशक हो गए कि यह दृश्य दिखते ही नहीं।
जगह-जगह छप्पर बनने बंद हो गए, पेड़ कट कर कम हो गए, झाड़ियां खत्म होने को हैं। घरों में आले बनाने की परंपरा बंद हो गई। अपने आप फलने वाली लताएं कम हो गई। फसलों में छिड़काव का ज़हर हो गया। पक्षी आए तो आए कहां से ? जो बचे हैं उनमें से भी कुछ फसलों पर कीटनाशक छिड़कने के कारण, कुछ प्रदूषण से, कुछ मोबाइल तरंगों से मर रहे हैं। अगर हम अनुमान लगाएं तो भारत में ही हर रोज लाखों पक्षी सड़कों पर वाहनों के नीचे अचानक आने या टकराने से मर जाते हैं।
पक्षियों के प्रति हमारी संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है। हम केवल अपना ध्यान रखते हैं, पक्षियों का नहीं। हमने मां से सीखा था पक्षी भी हमारे अपने हैं। इन्हें दाना-चुग्गा देना चाहिए। धर्म होता है। धर्म कितना होता है, ये तो पता नहीं, पर पक्षियों को दाना डाल कर, रोटी के टूक डाल कर मन को जो शांति मिलती है वह धर्म से भी शायद बड़ी है। पक्षियों से जुड़ना जरूरी है। मुझे याद है कि जब मैं छोटा था, आंगन में ढेर सारी चिड़ियां, मैना आ जाती थी। मां उन्हें बड़े प्यार से दाना डालती थी या दो-तीन रोटियों के छोटे-छोटे टुकड़े करके उन्हें डालती थी। उन से बतियाती थीं। कई बार तो कोई ना कोई चिड़िया मां के कंधे पर बैठ जाती। कई बार तो आंगन में खाना खाते समय चिड़िया थाली से टूक तोड़ ले जाती थी। यह जो नाता है, अगर हम इसे समझ लें तो पक्षियों की संख्या कम नहीं होगी। हमारे आंगन की दीवारों पर 8-10 आले थे।
उन सभी में चिड़ियों या देसी मैना ने घोंसले बना रखे थे। वो हमारे परिवार का ही हिस्सा थे। मुंडेर पर कौए बैठे रहते। सुबह-सुबह हर रोज छत पर दो-तीन मोर-मोरनी आ जाते तो मां या तो खुद दाना डाल देती या हमें कहती। हमें बहुत अच्छा लगता। मां कई बार तो अपने हाथ में रोटी लेकर मोऱ को खिलाया करती थी। पहले तो वह घबराता, फिर धीरे-धीरे खाना शुरू करता। हम नजदीक जाते तो दूर भाग जाता। मोर दाना चुग कर अक्सर आकर्षक पंख फैलाकर नृत्य करने लगता। और अब, छतों पर कहां, खेतों में, खलिहान में ही मोर बहुत कम दिखाई देते हैं।
खेतों से, गांव से, कस्बों से, खासकर शहरों से जैसे बसंत गायब हो रहा है उसी तरह हमारे बीच से पक्षी भी गायब हो रहे हैं। पक्षियों के प्रति हमारा लगाव कम हो रहा है। पहले फसल काटते समय अगर कहीं किसी पक्षी का घोंसला दिखाई दे जाता था तो वह जगह उस पक्षी के लिए सुरक्षित छोड़ दी जाती थी। हाली हल जोतते समय अगर जमीन में टिटहरी या अन्य पक्षी के अंडे दिखाई देते तो उस जगह को जोतने या बोने से छोड़ देता था। किसान हरे पेड़ों को काटने से हिचकता था।
बुजुर्ग कहते थे, कि छोटे पेड़ औलाद जैसे तथा बड़े पेड़ पिता समान होते हैं। अब तो हम जिस तरह देसी पेड़ों के, लताओं के नाम भूलने लगे हैं, उसी तरह पक्षियों के नाम भी भूलने लगे हैं। उनकी पहचान भूल रहे हैं। यही कारण है पक्षी हमसे रूठ गए हैं। हमसे दूर भाग गए हैं। पक्षी कम हो रहे हैं, एक रिपोर्ट के अनुसार 1500 वनस्पति प्रजातियां, 80 से अधिक स्तनधारी प्रजातियां, 50 के आसपास चिड़ियां तथा अनेक कीट पतंगों की प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। बड़े दु:ख की बात है कि आंगन में अब चिड़िया दाना चुगने नहीं आती, घर की खिड़की पर अचानक चीं-ची नहीं करती, अब चिड़िया किसी बुजुर्ग या बच्चे के कंधे पर आकर नहीं बैठती। दादी-नानी के हाथ से भूल वश भी दाना नहीं खाती, मुंडेर पर कौआ अपना अलाप करके मेहमान आने का संकेत नहीं देता। मेरे आम के पेड़ पर कोयल की आवाज सुनाई नहीं देती। आंगन में पीढ़े पर बैठी मां-दादी के पास देसी मैंना आगे-पीछे चक्कर नहीं लगाती। रातों को टिटहरी की आवाज सुनाई नहीं देती।
पक्षी अब भी आ सकते हैं, बच सकते हैं। अब भी अपने हो सकते हैं अगर हम थोड़ा-सा बेहतर प्रयास करें तो। हम अपने आसपास ढेर सारे छोटे बड़े पेड़ लगाएं, फूलों के पौधे उगाए, उनके लिए पानी की व्यवस्था करें। बगीचों की संख्या बढ़ाएं। पेड़ ऐसे हों जिन पर वो घोंसले बना सकें, उन्हें फूल व फल मिल सकें। सघन छाया मिल सके। कुछ पेड़ पौधे झाड़ीनुमा हों, लताएं हों। घरों के बाहर आले हों, कुछ हम कृत्रिम घोंसले बनाकर भी टांग सकते हैं। सकोरों में पानी रख सकते हैं। उन्हें ऐसा माहौल दें कि वह सुरक्षित रहें, निडर रहें। दाना-चुग्गा का थोड़ा प्रबंध हो। फिर देखिए हमारे आसपास ढेर सारे पक्षी होंगे। उन पक्षियों में अपनापन होगा। हमें खुद तो इतना अच्छा लगेगा कि हम तनाव मुक्त होंगे।
पक्षियों की चहचहाहट होगी। रंग-बिरंगे पक्षी आपका स्वागत करेंगे। आप के आस पास एक नई दुनिया होगी। नई खुशियां होंगी। छोटे बच्चों को सबसे ज्यादा अच्छा लगेगा। वो पक्षी हमारे परिवार का ही हिस्सा होंगे। ये भी सत्य है कि अगर पक्षी खत्म हो गए तो हमारा अपना जीवन उज्ज्वल नहीं है। पक्षियों की एक प्रजाति जब लुप्त होती है तो उसके साथ बहुत कुछ खत्म होता है। इसलिए पक्षियों को अपनाइए, बचाइए और सृष्टि को अपने ढंग से खिलने दीजिए।
180-बी, दूसरी मंज़िल, मार्वल सिटी,
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